महान स्वतंत्रता सैनानी शेर-ए-हिन्द ......
शनिवार, 20 नवंबर 2021
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तेरी क़ुर्बानी मेरे मुल्क की शान हे टीपू,
बे रूह तेरे जिस्म के क़रीब आ ना सके फिरंगी...
डेस्क रिपोर्ट। आज के दिन जन्म हुआ था उस शेर ऐ हिंदुस्तान टीपू सुल्तान का जिसकी तलवार ने अंग्रेजो को ये सोचने पर बेबस कर दिया था जब तक टीपू हिंदुस्तान में मौजूद हे भारत पर कब्ज़ा करना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन हे। कई बार अंग्रेजो के छक्के छुड़ा देने वाला टीपू सुल्तान
जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती हे। टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवम्बर 1750 को कर्नाटक के देवनाहल्ली (यूसुफ़ाबाद) (बंगलौर से लगभग 33 (21 मील) किमी उत्तर मे) हुआ था। उनका पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था। उनके पिता का नाम हैदर अली और माता का नाम फ़क़रुन्निसा था। उनके पिता हैदर अली मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे। जो अपनी ताकत से 1761 मे मैसूर साम्राज्य के शासक बने। टीपू को मैसूर के शेर के रूप में जाना जाता है। योग्य शासक के अलावा टीपू एक विद्वान, कुशल सैनिक और कवि भी थे।
‘‘मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बनध थे। मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य केा 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपु सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फस्ल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।’’
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। ‘यंग इण्डिया में आगे कहा गया है-
‘‘टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों की ज़मीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे यह उसके खुले जेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपु एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपु ने आजादी के लिए लडते हुए जान देदी और दुश्मन की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी- वह तलवार जो आजादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं : ‘शेर की एक दिन की ज़िंदगी लोमडी के सौ सालों की जिंगी से बेहतर है।‘ उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया है : कि ‘खुदाया, जंग के खुन बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।
राम नाम वाली टीपू सुल्तान की अंगूठी
टीपू सुल्तान की सोने की वह अंगूठी लंदन में नीलाम कर दी गई जिस पर 'राम' लिखा था. क्रिस्टीज़ नीलामीघर ने सोने की इस अंगूठी को एक लाख 45 हजार पाउंड में बेचा.
मुसलमान राजा टीपू सुल्तान की ये अंगूठी खास इसलिए है कि क्योंकि इस पर राम का नाम लिखा है.
ये सोने की अंगूठी मई 2014 में लंदन में नीलाम हुई थी।
लंदन में टीपू की तलवार नीलाम
टीपू की तलवार अनुमान से दस गुना अधिक कीमत में बिकी लंदन में हुई एक नीलामी में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान की दो सौ साल पुरानी एक तलवार पाँच लाख से अधिक पाउंड में नीलाम हुई है.
लंदन की नामी नीलामी संस्था सोदेबीज़ज़ में टीपू सुल्तान के शस्त्र भंडार के कई हथियारों को नीलाम किया गया जिनमें टीपू की एक दुर्लभ शाही तलवार भी शामिल थी. सोदेबीज़ ने पहले इस तलवार की नीलामी 50,000 से 70,000 पाउंड के बीच रहने का अनुमान लगाया था. लेकिन नीलामी में ख़रीदार ने निचले अनुमान से दस गुना अधिक राशि की बोली लगाकर तलवार को ख़रीद लिया. तलवार 505,250 पाउंड में बिकी. इसी तरह की टीपू की एक तलवार को सात साल पहले भारतीय उद्योगपति विजय माल्या ने ख़रीदा था. 2003 में लंदन में हुई नीलामी में विजय माल्या ने 350,000 पाउंड में टीपू की एक तलवार को ख़रीदा था. सोदेबीज़ की नीलामी में टीपू सुल्तान की सेना की एक और तोप भी 313,250 पाउंड में नीलाम हुई.
दुर्लभ तलवार
सोदेबीज़ के अनुसार 93 सेंटीमीटर लंबी ये तलवार बेहद दुर्लभ तलवार है जिसकी कांसे की मूठ पर बाघ का सिर बना हुआ है. सोदेबीज़ ने इस तलवार के बारे में लिखा है कि इस तरह की बाघ के सिर वाले मूठ की तलवारें बेहद कम हैं और मूठ पर बाघ का निशान होने का मतलब ये समझा जाता है कि ये तलवार टीपू सुल्तान की निजी तलवारों में रही होगी. इस तरह की एक और तलवार श्रीरंगपट्टम में अंग्रेज़ों से लड़ाई में टीपू सुल्तान की मृत्यु होने के बाद टीपू के शव पर पड़ी मिली थी. वह तलवार अभी इंग्लैंड में महारानी के आधिकारिक निवास स्थल विंडसर क़िले में शाही शस्त्रागारों के भंडार में रखी हुई है.
टीपू की तोप
सोदेबीज़ में टीपू की रखी हुई तोप जिसके लिए तीन गुना अधिक बोली लगी सोदेबीज़ की नीलामी में टीपू सुल्तान के शस्त्रागार के और भी कई हथियारों को नीलाम किया गया. इनमें एक दुर्लभ तोप के लिए तीन गुना अधिक बोली लगी. ढाई मीटर से अधिक लंबी इस तोप के लिए सोदेबीज़ ने बोली की कीमत 120,000 पाउंड से 150,000 पाउंड के बीच रखी थी. मगर तोप निचले अनुमान से लगभग तीन गुना अधिक कीमत 313,250 पाउंड में नीलाम हुई. समाचार एजेंसी आइएएनएस के अनुसार सोदेबीज़ में टीपू के हथियारों की नीलामी से डेढ़ करोड़ पाउंड से अधिक की राशि जुटी. इससे पूर्व वर्ष 2005 में भी इस तरह की नीलामी हुई थी और तब उस नीलामी से केवल 12 लाख पाउंड जुटे थे.
टीपू सुल्तान ने बरसाए थे अँग्रेजों पर रॉकेट
मैसूर के टीपू सुलतान ने अँग्रेज फौजों के खिलाफ रॉकेटों का उपयोग किया था। 1772 और 1799 में श्रीरंगपट्टनम में दो लड़ाइयाँ हुईं। इनमें टीपू के सिपाहियों ने 6 से लेकर 12 पौंड तक के रॉकेट फिरंगियों पर फेंके। ये रॉकेट लोहे की नलों के बने थे। पटाखों की तरह चाहे जहाँ वे न मुड़ जाएँ, इसके लिए 10 फुट का एक बाँस उनके साथ लगा रहता था। इन रॉकेटों की मार एक डेढ़ मील तक होती थी, जो उस समय काफी आश्चर्यजनक चीज थी।
ये रॉकेट ठीक निशाने पर तो नहीं बैठते थे, लेकिन चूँकि वे भारी संख्या में छोड़े जाते थे, इसलिए अँग्रेजों की फौज परेशान हो जाती थी। टीपू की फौज में 5000 सिपाही रॉकेट बंदूकची ही थे।
कर्नल बेली नामक एक अँग्रेज ने लिखा है, 'इन रॉकेट वालों से हम इतने तंग आ गए कि बेखटके चलना-फिरना मुश्िकल हो गया। पहले नीली रोशनी चमकती, और फिर रॉकेटों की वर्षा होने लगती, और 20-30 फुट लंबे बाँसों के कारण लोग मरने व जख्मी होने लगते। घुड़सवार फौज के खिलाफ ये रॉकेट अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए।
रॉकेटों का विकास टीपू के पिता हैदरअली ने किया था। लेकिन रॉकेट कोई एटम बम साबित नहीं हुए। श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई अँग्रेजों ने ही जीती, और टीपू को युद्ध दंड व राज्यभाग अर्पित करने पड़े। उसने अपने दो पुत्र भी अँग्रेजों को शरीर बंधक के रूप में दिए। लेकिन टीपू के अस्त्रों ने रॉकेटों में यूरोप की रुचि पुनर्जागृत की। हालाँकि रॉकेट का उपयोग चीन से लेकर यूरोप तक में 13वीं शताब्दी से हो रहा था, लेकिन तोप और बंदूक के अचूक निशाने के सामने बेचारा रॉकेट फीका पड़ गया था। टीपू के युद्ध की खबर यूरोप भर में फैली, और विलियम काँग्रीव नामक अँग्रेज कर्नल ने चुपचाप खोज शुरू कर दी। कुछ ही वर्षों में अँग्रेजों ने बहुत अच्छे रॉकेट बना लिए। 1809 में उन्होंने 25,000 रॉकेटों का उपयोग करके पूरा कोपनहेगन नगर जला दिया। डेनझिग और बोलोन पर भी रॉकेट बरसे।
1812 में अमेरिका और इँग्लैंड के युद्ध में भी काँग्रीव रॉकेटों का उपयोग अँग्रेजों ने किया। अमेरिका के राष्ट्रगीत (स्टार स्पैंगल्ड बैनर) में रॉकेट की लाल लौ का जिक्र आता है, जिसका श्रेय हमें टीपू सुलतान को देना चाहिए।
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